वात, पित्त, कफ (Vata Pitta Kapha) आयुर्वेद शास्त्र में यह तीन दोष माने जाते है। ये तीनो Vata, Pitta, Kapha विषम अवस्था में (अर्थात बड़े हुए अथवा क्षीण हुए ) शरीर का विनाश कर देते है और सम अवस्था में शरीर का पोषण करते है अथवा स्वास्थ-संपादन करने में सहायक होते है।
बाल्य अवस्था में कफ का असर होता है। युवा अवस्था में पित्त का असर होता है। आयु के अंत में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। इसी तरह दिन के प्रथम प्रहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव होता है। दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात का प्रभाव होता है।
Table of Contents
- 1 स्वास्थ्य क्या है | Swasthya kya hai
- 2 वात पित्त कफ (Vata Pitta Kapha) दोषों का वर्णन
- 2.1 १. वात दोष | Vata Dosha
- 2.2 कुपित वात (Vata) के लक्षण | Kupit Vata ke Lakshan
- 2.3 वात (Vata) का शरीर में स्थान
- 2.4 २. पित्त दोष | Pitta Dosha
- 2.5 कुपित पित्त (Pitta) के लक्षण | Kupit Pitta ke Lakshan
- 2.6 पित्त (Pitta) का शरीर में स्थान
- 2.7 ३. कफ दोष | Kapha Dosha
- 2.8 कुपित कफ (Kapha) के लक्षण | Kupit Kapha ke Lakshan
- 2.9 कफ (Kapha) का शरीर में स्थान
- 3 Vata Pitta Kapha दोषों को सम रखना
स्वास्थ्य क्या है | Swasthya kya hai
स्वास्थ्य क्या है और स्वस्थ किसे कहते हैं , इस प्रश्न का जितना सही और सटीक उत्तर आयुर्वेद ने दिया है , उतना विश्व के किसी चिकित्सा – शास्त्र ने नहीं दिया है । स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा सुश्रुत संहिता ने इस प्रकार प्रस्तुत की है –
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ।।
अर्थात् जिस व्यक्ति के शरीर में तीनों दोष ( वात पित्त कफ ) सम अवस्था में हों , पंचमहाभूतों ( अग्नि , जल पृथ्वी , वायु , आकाश ) की पांच , सातों धातुओं ( रस , रक्त , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा , शुक्र ) की सात और तेरहवीं जठर की अग्नि- ये अग्नियां समान हों , रस – रक्त आदि सातों धातु पुष्ट व समान हों , मलमूत्र विसर्जन क्रिया ठीक हो, तथा आत्मा , इन्द्रियां व मन प्रसन्न अवस्था में हों उसी व्यक्ति को स्वस्थ कहा जा सकता है ।
यहाँ हम इस परिभाषा के पहले सूत्र ‘त्रिदोष’ (vata, pitta, kapha) के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे जिससे इनके विषय में उचित एवं आवश्यक जानकारी आपको बड़े सके। यह जानकारी शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक सिद्ध होगी।
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वात पित्त कफ (Vata Pitta Kapha) दोषों का वर्णन
शरीर को धारण करने वाले तत्त्व को धातु कहा जाता है और रोग पैदा करने वाले तत्त्व को दोष कहा जाता है। शरीर में जब “वात पित्त कफ” तीनो सामान और शांत अवस्था में रहते है तब शरीर को धारण करने वाले होने से ये ‘धातु’ कहे जाते है। जब ये विषम या कुपित अवस्था में होते है तब दोष कहे जाते है और रोग पैदा करते है।
“रोगस्तु दोष वैषम्यम्” – अर्थात इन तीनों का या इन तीनों में से किसी एक का विषम या कुपित स्थिति में होना ही रोग है।
Vata Pitta Kapha दोषों के कर्म
हमारे शरीर को वात (वायु) सदा उत्साहशक्ति , श्वास , प्रश्वास , चेष्टा ( शरीर सम्बन्धी व्यवहार — उठना , बैठना , चलना , फिरना आदि ) , मल – मूत्र आदि वेगों की प्रवृत्ति , रस आदि धातुओं की उचित गति , श्रोत्र आदि इन्द्रियों की अपने – अपने विषयग्रहण की कुशलता से कृपा करता रहता है । इसी प्रकार पित्त हमारे शरीर के उपर सदा पाचन , उष्णता , दर्शन ( देखना ) . भूख , प्यास , भोजन के प्रति रुचि , प्रभा ( कान्ति ) , मेधा ( धारण करने की क्षमता वाली बुद्धि ) , बुद्धि , शूरता , शरीर सम्बन्धी मृदुता द्वारा अनुग्रह करता है । कफ देह को सदा स्थिरता , स्निग्धता , दृढ़ सन्धिबन्धन तथा क्षमा आदि द्वारा अनुगृहीत करता है
इन तीनो दोषो का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
१. वात दोष | Vata Dosha
यह तीनों दोषो में प्रमुख होता है। इसे वायु भी कहा जाता है। वात दोष “वायु” और “आकाश” इन दो तत्वों से मिलकर बना है। यह रुखा, लघु(हल्का), शीतल, सूक्ष्म, चंचल, गतिशील – इन गुणों वाला होता है। इन गुणों की वृद्धि होने पर यहाँ कुपित होता है और इन गुणों से विपरीत स्निग्ध, भरी, उष्ण, स्थूल, स्थिर, और सौम्य गुणों वाले आहार-विहार से इसका शमन होता है।इन तीनों दोषो में वात प्रमुख है क्योकि शेष दोनों दोष वात के सहयोग से ही शरीर में गमन और क्रिया करते है। यदि वात दोष लंबे समय तक बना रहता है तो पित्त व कफ के दोष का असन्तुलन भी प्रकट होने लगता है।
आयुर्वेद में कहा है – पित्तं पंगु कफः पंगु पंगवो मल धातवः। वायुना यत्रनीयते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात पित्त, कफ तथा देह के मल व धातुए ये सब पंगु है अर्थात स्वयं देह में एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जा सकते। इन्हें वात ही जहा-तहा ले जाता है जैसे आकाश में वायु बादलों को इधर-उधर ले जाते है।
कुपित वात (Vata) के लक्षण | Kupit Vata ke Lakshan
शरीर में वात दोष के कुपित होने पर निम्न लक्षण प्रकट होते है –
- गैस (वायु) बढ़ना
- पेट फूलना
- जोड़ो में दर्द होना
- अपान वायु निकलना
- हिचकी आना
- डकार आना
- मुँह सुखना
- आमवात
- गठिया
वात (Vata) का शरीर में स्थान
विशेष रूप से वात नाभि से नीचे वाले भाग में रहता है।
२. पित्त दोष | Pitta Dosha
पित्त दोष ‘अग्नि’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। यह अग्नि भी कहलाता है। यह तनिक स्नेहयुक्त , उष्ण , तीखा , तरल , खट्टा , सा और कट , इन गुणों वाला होता है । इन गुणों की वृद्धि होने पर यह कुपित होता है और इन गुणों से विपरीत स्निग्ध , शीतल , मृदु , सान्द्र , स्थिर और मधुर गुणों वाले आहार – विहार से इसका शमन होता है । पित्त पाचन अग्नि को तीव्र करता है।
कुपित पित्त (Pitta) के लक्षण | Kupit Pitta ke Lakshan
शरीर में पित्त दोष के कुपित होने पर निम्न लक्षण प्रकट होते है –
- पेट में एसिडिटी (अम्लता)
- हायपर एसिडिटी (अम्लपित्त)
- पेट में जलन होना
- मुँह का स्वाद कड़वा होना
- उलटी जैसा जी होना या मचलना
- उल्टी होना
- सर दर्द करना
- आँखों में जलन होना
- अधिक भूख-प्यास
- बहुत गर्मी लगना
- त्वचा में दाने, मुहाँसे, फुंसी
- काम करने में चिड़चिड़ाहट
पित्त (Pitta) का शरीर में स्थान
विशेष रूप से पित्त नाभि और हृदय के बीच में रहता है।
३. कफ दोष | Kapha Dosha
कफ दोष ‘पृथ्वी’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। इसे श्लेष्मा भी कहते हैं । यह भारी , शीतल , मृदु , स्निग्ध , मधुर और चिपकने वाले चिकने गुणों वाला होता है । इन गुणों की वृद्धि होने पर यह कुपित होता है और इन गुणों से विपरीत हल्के , उष्ण , तीखे , रूखे , कटु , चल और विशद गुणों वाले आहार – विचार से इसका शमन होता है ।
कुपित कफ (Kapha) के लक्षण | Kupit Kapha ke Lakshan
शरीर में कफ दोष के कुपित होने पर निम्न लक्षण प्रकट होते है –
- शरीर में भारीपन
- शिथिलता
- आलस्य का अनुभव होना
- भूख में कमी
- मुँह का स्वाद मीठा रहना
- सर्दी जुकाम खासी रहना
- अरुचि होना
- काम में मन न लगना
कफ (Kapha) का शरीर में स्थान
विशेष रूप से कफ हृदय के ऊपर वाले भाग में रहता है।
Vata Pitta Kapha दोषों को सम रखना
जो वात पित्त कफ आदि दोष सम स्थिति पर रहने से शरीर की वृद्धि का कारण होते हैं , वे ही दोष विषम होने पर शरीर के विनाश के कारण होते हैं । अतएव हितकर आहार – विहार द्वारा दोषों की वृद्धि के समान ही दोषों के क्षय से भी रक्षा करनी चाहिए
वक्तव्य – समदोष की स्थिति ही उत्तम स्वास्थ्य के लिए हितकर होती है । अतः उत्तम स्वास्थ्य की इच्छा करने वाले पुरुष को ऐसा आहार – विहार करना चाहिए जिससे वात आदि दोष , रस आदि धातु तथा पुरीष आदि मल न बढ़े और न घटें ।